Vande Mataram @150: मुस्लिम लीग के सामने घुटने टेककर नेहरू ने पहले राष्ट्रगीत और फिर देश के टुकड़े करने की लिखी पटकथा
परिचय
1857 की महाक्रांति के बाद जब ब्रिटिश साम्राज्य भारतके स्वाधीनता–भाव को मसलने पर उतारू था, तभी 1870 में एक तुगलकी फरमान थोपकर ‘गॉड सेव द क्वीन’ जैसा विदेशी स्तुति-गीत भारत में अनिवार्य कर दिया गया। अपनी ही मातृभूमि पर विदेशी शासन की यह अपमानजनक घोषणा उस समय सरकारी सेवा में कार्यरत बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय के आत्मसम्मान को झकझोर गई। भारत की धरती पर किसी विदेशी शासक की प्रशंसा में गीत गाने का अपमान असहनीय था, और इसी राष्ट्रीय स्वाभिमान की ज्वाला से पैदा हुआ वंदे मातरम्, जिसने अंग्रेजों के शासन में ही स्वतंत्रता की चेतना को नया आयाम दिया।
लेकिन विडंबना देखिए राष्ट्रचेतना का यह पवित्र सूत्र, यह सांस्कृतिक आत्मजागरण का मंत्र “वन्दे मातरम” कांग्रेस के द्वारा राजनीतिक तुष्टिकरण की बलि चढ़ा दिया गया। नेहरू युग से लेकर UPA शासन तक, वंदे मातरम् को वह सम्मान कभी नहीं मिला, जिसका ऋण यह राष्ट्र अब भी उतार नहीं पाया है। यह वही गीत है जिसे महात्मा गांधी राष्ट्रीयगान का स्वाभाविक विकल्प मानते थे, परंतु सत्ता के गलियारों में बैठे कुछ प्रभावक बापू की भावना से भी ऊपर खुद को समझ बैठे।
तथापि सत्य और बलिदान कभी व्यर्थ नहीं जाते। आज नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में नया भारत आत्मचेतना, सांस्कृतिक पुनर्जागरण और राष्ट्रीय गौरव के साथ तेजी से आगे बढ़ रहा है, और इसी के अनुरूप बंकिम दा की रचना “वंदे मातरम्” पुनः अपने युग-सम्मान को प्राप्त करते हुए हम भारतीयों की आत्मचेतना और एकात्मता के पुनर्जागरण की भावना को प्रतिध्वनित कर रही है।
इसी क्रम में प्रधानमंत्री मोदी ने सोमवार को लोकसभा में वंदे मातरम् के 150 वर्ष पूरे होने पर चर्चा की शुरुआत की और अपने एक घंटे के संबोधन में कहा, “वंदे मातरम् अंग्रेजों को करारा जवाब था, ये नारा आज भी प्रेरणा दे रहा। आजादी के समय महात्मा गांधी को भी यह पसंद था। उन्हें यह गीत नेशनल एंथम के रूप में दिखता था।”
इसके बाद प्रधानमंत्री ने एक महत्वपूर्ण प्रश्न उठाया कि जब पूज्य बापू इस गीत की आध्यात्मिक शक्ति को पहचानते थे तो फिर दशकों तक इसके साथ इतना अन्याय क्यों हुआ, वंदे मातरम् के साथ विश्वासघात क्यों हुआ, और वह कौन-सी ताकतें थीं जो गांधीजी की भावना से भी ऊपर स्वयं को समझ बैठीं।
आज के इस लेख में हम प्रधानमंत्री द्वारा उठाए गए इन्हीं प्रश्नों की ऐतिहासिक पड़ताल करेंगे और उस सत्य की परत को उजागर करेंगे जिसे वामपंथी इतिहासकारों और दरबारी पत्रकारिता ने दशकों तक दबाकर रखा।
बंकिम दा की कालजयी रचना
वंदे मातरम् की इस कालजयी ध्वनि को समझने के लिए आवश्यक है कि उसके जन्म की उस ऐतिहासिक घड़ी को याद किया जाए, जब भारत ब्रिटिश शासन की बेड़ियों में जकड़ा हुआ था और देशभक्ति का हर उफान राजद्रोह माना जाता था। इसी दमनकारी वातावरण में बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय सरकारी सेवा का दायित्व निभा रहे थे, तभी 1870 में ब्रिटिश हुकूमत ने भारत पर एक और अपमानजनक आदेश थोपते हुए ‘गॉड सेव द क्वीन’ जैसा विदेशी स्तुतिगान अनिवार्य कर दिया।
यह निर्णय बंकिम दा के आत्मसम्मान पर ऐसा प्रहार था जिसे वे किसी भी रूप में स्वीकार नहीं कर सकते थे, क्योंकि उनके लिए भारत माता की संतान होकर किसी विदेशी शासक की प्रशंसा करना दासता की पराकाष्ठा थी।
इसी राष्ट्रीय स्वाभिमान की तपिश में एक संकल्प जन्मा कि यदि गीत गाना ही है तो वह केवल भारतभूमि के गौरव के लिए होगा, न कि किसी साम्राज्यवादी सत्ता की प्रसन्नता के लिए। इसी संकल्प की परिणति 7 नवंबर 1875 को हुई, जब बंकिम दा के कलम से वंदे मातरम् का उदय हुआ—एक ऐसा गीत, जिसने आनंद मठ के पन्नों से निकलकर पूरे राष्ट्र की रगों में स्वतंत्रता का विद्युत संचार भर दिया।
1876 में ‘वंदे मातरम्’ गीत बंग दर्शन नामक पत्रिका में प्रकाशित हुआ। और तब से ही संस्कृत के दिव्यत्व और बंगाली की भावपूर्ण प्रवाह से सजी यह रचना शीघ्र ही स्वतंत्रता संग्राम के हर योद्धा के लिए शक्ति, साहस और प्रेरणा का मंत्र बन गई।
इस गीत को प्रथम बार सुर और ताल के साथ महान कवि रवींद्रनाथ टैगोर ने 1896 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में गाया, जिसके बाद यह गीत राष्ट्र-चेतना की धड़कन बन गया। आगे चलकर अरबिंदो घोष ने इसका अंग्रेजी अनुवाद किया और आरिफ मोहम्मद खान ने उर्दू में इसका रूपांतर किया, जिससे यह राष्ट्रमंत्र भाषाई विविधता से ऊपर उठकर पूरे भारत को एक सूत्र में बांधने वाला सांस्कृतिक प्रतीक बन गया।
Vande Mataram के टुकड़े कर लिखी विभाजन की पटकथा
वंदे मातरम् के साथ हुआ ऐतिहासिक अन्याय केवल तुष्टिकरण की राजनीति का परिणाम नहीं था, बल्कि वह वह क्षण था जब राष्ट्रगौरव को सत्ता के लोलुप समझौतों के लिए बलि चढ़ा दिया गया। 1896 में टैगोर द्वारा दिए गए सुरों और 1905 के स्वदेशी आंदोलन की प्रचंड गूंज ने इसे ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ विद्रोह का प्रतीक बना दिया था।
अंग्रेजों की लाठियों, जेलों और प्रतिबंधों ने इसकी तेजस्विता को दबाने के बजाय और प्रबल बना दिया। बच्चे बारिश में खड़े होकर इसे गाते थे, महिलाएँ इसे अपनी साड़ियों पर काढ़ती थीं, नेताजी सुभाषचंद्र बोस इसे आज़ाद हिन्द फौज का मार्चिंग गीत बनाते थे, और श्री अरबिंदो घोष इसे भारत के पुनर्जन्म का मंत्र बताते थे।
लेकिन यही गीत, जो भारत की आत्मा का घोष बन चुका था, राजनीति की गिरफ़्त में पड़कर विभाजन की पटकथा का पहला अध्याय बन गया। काकीनाडा अधिवेशन में पंडित विष्णु दिगंबर पलुस्कर के गायन पर उठी आपत्ति ने पहली बार इसे मजहबी विवाद का विषय बनाने की कोशिश की।
1906 में मुस्लिम लीग की स्थापना के बाद यह विरोध संगठित हुआ और 1930 के दशक में इसे और उग्र रूप दिया गया। इस पृष्ठभूमि में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के वे शब्द आज भी इतिहास की सटीक व्याख्या जैसे प्रतीत होते हैं जब उन्होंने कहा, “वंदे मातरम के साथ अन्याय क्यों हुए, ये विश्वासघात क्यों हुआ…”
1937 में कांग्रेस कार्यसमिति द्वारा गीत के तथाकथित ‘आपत्तिजनक’ अंशों को हटाने का निर्णय इसी समझौते की चरम परिणति था, जिसे देखते हुए राष्ट्रवादी चिंतक रामानंद चट्टोपाध्याय ने चेताया था कि यदि यह गीत विभाजित किया गया तो यह देश भी विभाजित होगा। इतिहास ने उनकी चेतावनी को अक्षरशः सत्य सिद्ध किया।
Vande Mataram पर क्यों जरूरी है बहस
आज जब प्रियंका गाँधी जैसे कांग्रेसी यह प्रश्न पूछते हैं कि “वंदे मातरम् पर बहस की आखिर जरूरत क्या है?” तब इसकी जड़ में वह सच्चाई छिपी है जिसे वर्षों तक राजनीतिक तुष्टिकरण ने ढकने की कोशिश की।
पहचानें विचारधाराओं की आग में झुलस रही हैं, सांस्कृतिक मूल्यों को चुनौतियाँ दी जा रही हैं, और राष्ट्रभावना को एक खांचे में बाँधने का प्रयास हो रहा है। ऐसे समय में वंदे मातरम् केवल एक गीत नहीं, बल्कि वह भाव है जो बताता है कि राष्ट्र प्रेम किसी पार्टी का एजेंडा नहीं, बल्कि हमारी सभ्यता की विरासत है।
2025 में वंदे मातरम् के 150 वर्ष पूरे होने पर भारत इसे जिस तरह मना रहा है, वह स्वयं बताता है कि यह बहस क्यों आवश्यक है। तकनीक ने इसकी आत्मा को नहीं बदला, बल्कि इसकी पहुंच और प्रभाव को कई गुना बढ़ा दिया है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में राष्ट्रीय अभियानों ने वंदे मातरम् को फिर से भारत की नवयुवा नसों में प्रतिष्ठित कर दिया है। जो गीत कभी साम्राज्यवाद को चुनौती देता था, आज वह अंतरिक्ष में भारत की क्षमता और आत्मविश्वास का प्रतीक बन गया है।
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यह लेख अरविंद धर्मपुरी जी की टीम के ऐतिहासिक अध्ययन, दृष्टिकोण एवं प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी के लोकसभा में दिए गए वक्तव्यों पर आधारित है।

